शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

कदंब का पेड़ - सुभद्रा कुमारी चौहान

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे|
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली|
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता,
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता|
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता,
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता|

सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती,
मुझे देखने काम छोड़कर तुम बाहर तक आती|
तुमको आता देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता,
पत्तों मे छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता|
गुस्सा होकर मुझे डाटती, कहती  नीचे आजा,
पर जब मैं ना उतरता, हँसकर कहती, मुन्ना राजा|
नीचे उतरो मेरे भईया तुंझे मिठाई दूँगी,
नये खिलौने, माखन-मिसरी, दूध मलाई दूँगी|

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता,
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता|
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे,
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे|
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता,
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता|
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती,
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं|

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे,
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे|

अगर आप भी अपनी रचनाओं को हम तक पहुँचाना चाहते है तो अपना नाम, संक्षिप्त स्व-जीवनी तथा अपनी कृतियाँ हमें नीचे दिए हुए संचार पते पर भेजे|
aajkekalakar@gmail.com

लेबल: ,

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ