रविवार, 25 दिसंबर 2016

कृष्ण की चेतावनी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

वर्षों तक वन में घूम घूम,
बाधा विघ्नों को चूम चूम|
सह धूप घाम पानी पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर|
सौभाग्य न सब दिन होता है,
देखें आगे क्या होता है|

मैत्री की राह दिखाने को'
सब को सुमार्ग पर लाने को|
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को|
भगवान हस्तिनापुर आए,
पांडव का संदेशा लाये|

दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर इसमें भी यदि बाधा हो|
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रखो अपनी धरती तमाम|
हम वहीँ खुशी से खायेंगे,
परिजन पे असी ना उठाएंगे|

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की न ले सका|
उलटे हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य साधने चला|
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है|

हरि ने भीषण हुँकार किया,
अपना स्वरूप विस्तार किया|
डगमग डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित हो कर बोले|
जंजीर बढ़ा अब साध मुझे,
हां हां दुर्योधन बाँध मुझे|

ये देख गगन मुझमे लय है,
ये देख पवन मुझमे लय है|
मुझमे विलीन झनकार सकल,
मुझमे लय है संसार सकल|
अमरत्व फूलता है मुझमे,
संहार झूलता है मुझमे|

भूतल अटल पाताल देख,
गत और अनागत काल देख|
ये देख जगत का आदि सृजन,
ये देख महाभारत का रन|
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान कहाँ इसमें तू है|

अंबर का कुंतल जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख|
मुट्ठी में तीनो काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख|
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं|

जिह्वा से काढती ज्वाला सघन,
साँसों से पाता जन्म पवन|
पर जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हंसने लगती है सृष्टि उधर|
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन,
छा जाता चारो और मरण|

बाँधने मुझे तू आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है|
यदि मुझे बांधना चाहे मन,
पहले तू बाँध अनंत गगन|
सूने को साध ना सकता है,
वो मुझे बाँध कब सकता है|

हित वचन नहीं तुने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना|
तो ले अब मैं भी जाता हूँ,
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ|
याचना नहीं अब रण होगा,
जीवन जय या की मरण होगा|

टकरायेंगे नक्षत्र निखर,
बरसेगी भू पर वह्नी प्रखर|
फन शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुंह खोलेगा|
दुर्योधन रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा|

भाई पर भाई टूटेंगे,
विष बाण बूँद से छूटेंगे|
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे,
वायस शृगाल सुख लूटेंगे|
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर्दायी होगा|

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े|
केवल दो नर न अघाते थे,
ध्रीत्रास्त्र विदुर सुख पाते थे|
कर जोड़ खरे प्रमुदित निर्भय,
दोनों पुकारते थे जय, जय|

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