सोमवार, 26 दिसंबर 2016

तू क्या है? - मिर्ज़ा ग़ालिब

हर एक बात पे कहते हो तुम के "तू क्या है?"
तुम्ही कहो के यह अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है|

ना शोले मैं यह करिश्मा ना बर्क़ मैं यह अदा,
कोई बताओ के वो शोख-ए-तुंड ओ खु क्या है|

यह रश्क है के वो होता है हम-सुखन तुमसे,
वरना ख़ौफ़-ए-बाद'आमोज़ी-ए-उड़ू क्या है|

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैरहण,
हमारी जाब को अब हाजत-ए-रफू क्या है|

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
खुरेदते हो जो अब रख, जूसतुजू क्या है|

रागों मैं दौड़ते फिरने के हम नही कायल,
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है|

वो चीज़ जिस के लिए हो हमें बहिश्त अज़ीज़,
सिवाए बाड़ा-ए-गुलफाम-ए-मुश्काबू क्या है|

पियूं शराब अगर कम भी तो देख लूँ दो चार,
यह शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है|

रही ना ताक़त-ए-गुफ्तार और अगर हो भी,
तो किस उमीद पे कहिए कह आरज़ू क्या है|

बना है शह का मसाहिब, फिरे है इतराता,
वरना शहर मैं 'ग़ालिब' की आबरू क्या है|

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