स्वदेश प्रेम - रामनरेश त्रिपाठी
अतुलनीय
जिनके प्रताप का,
साक्षी है
प्रतयक्ष दिवाकर।
घूम घूम
कर देख चुका है,
जिनकी निर्मल
किर्ति निशाकर।
देख चुके
है जिनका वैभव,
ये नभ के
अनंत तारागण।
अगणित बार
सुन चुका है नभ,
जिनका विजय-घोष
रण-गर्जन।
शोभित है
सर्वोच्च मुकुट से,
जिनके दिव्य
देश का मस्तक।
गूंज रही
हैं सकल दिशायें,
जिनके जय
गीतों से अब तक।
जिनकी महिमा
का है अविरल,
साक्षी सत्य-रूप
हिमगिरिवर।
उतरा करते
थे विमान-दल,
जिसके विसतृत
वछ-स्थल पर।
सागर निज
छाती पर जिनके,
अगणित अर्णव-पोत
उठाकर।
पहुंचाया
करता था प्रमुदित,
भूमंडल के
सकल तटों पर।
नदियां जिनकी
यश-धारा-सी,
बहती है
अब भी निशी-वासर।
ढूढो उनके
चरण चिहन भी,
पाओगे तुम
इनके तट पर।
सच्चा प्रेम
वही है जिसकी
तृपित आत्म-बलि
पर हो निर्भर।
त्याग बिना
निष्प्राण प्रेम है,
करो प्रेम
पर प्राण निछावर।
देश-प्रेम
वह पुण्य छेत्र है,
अमल असीम
त्याग से वि्लसित।
आत्मा के
विकास से जिसमे,
मनुष्यता
होती है विकसित।
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1 टिप्पणियाँ:
Thanks to u hamare kavi ji
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