पद्मावती-नागमती-सती-खंड-पद्मावत - मलिक मोहम्मद जायसी
पदमावति पुनि पहिरि पटोरी
। चली साथ पिउ के होइ जोरी ॥
सूरुज छपा, रैनि होइ गई ।
पूनो-ससि सो अमावस भई ॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं
। जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं ॥
सेंदुर परा जो सीस अघारा
। आगि लागि चह जग अँधियारा ॥
यही दिवस हौं चाहति, नाहा
। चलौं साथ, पिउ ! देइ गलबाहाँ ॥
सारस पंखि न जियै निनारे
। हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे ॥
दीपक प्रीति पतँग जेउँ जनम
निबाह करेउँ ।
नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ
लागि जिउ देउँ ॥1॥
नागमती पदमावति रानी । दुवौ
महा सत सती बखानी ॥
दुवौ सवति चढि खाट बईठीं
। औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥
बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत
सबै बैठे पुनि खाटा ॥
चंदन अगर काठ सर साजा । औ
गति देइ चले लेइ राजा ॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता ।
दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥
एक जो बाजा भएउ बियाहू ।
अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥
जियत जो जरै कंत के आसा ।
मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥
आजु सूर दिन अथवा, आजु रेनि
ससि बूड ।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु
आगि हम्ह जूड ॥2॥
सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा
। सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा ॥
एक जो भाँवरि भईं बियाही
। अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ॥
जियत, कंत ! तुम हम्ह गर
लाई । मुए कंठ नहिं छोडँहिं,साईं !
औ जो गाँठि, कंत ! तुम्ह
जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
यह जग काह जो अछहि न आथी
। हम तुम, नाह ! दुहुँ जग साथी ॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौंढी
दुवौ कंत गर लाई ॥
लागीं कंठ आगि देइ होरी ।
छार भईं जरि, अंग न मोरी ॥
रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग
भएउ रतनार ।
जो रे उवा , सो अथवा; रहा
न कोइ संसार ॥3॥
वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह
गड छेंका आई ॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता
। भए अलोप राम औ सीता ॥
आइ साह जो सुना अखारा । होइगा
राति दिवस उजियारा ॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी ।
दीन्ह उडाइ, पिरथिमी झूठी ॥
सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल
बाँधा जहँ जहँ गढ-घाटी ॥
जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ
लहि यह तिस्ना नहिं मरै ॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा ।
बादल आइ पँवरि पर जूझा ॥
जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष
भए संग्राम ।
बादसाह गढ चूरा, चितउर भा
इसलाम ॥4॥
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