सोमवार, 26 दिसंबर 2016

पद्मावती-नागमती-सती-खंड-पद्मावत - मलिक मोहम्मद जायसी

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी ॥
सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो-ससि सो अमावस भई ॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं ॥
सेंदुर परा जो सीस अघारा । आगि लागि चह जग अँधियारा ॥
यही दिवस हौं चाहति, नाहा । चलौं साथ, पिउ ! देइ गलबाहाँ ॥
सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे ॥
नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं ॥

दीपक प्रीति पतँग जेउँ जनम निबाह करेउँ ।
नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ लागि जिउ देउँ ॥1॥

नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी ॥
दुवौ सवति चढि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥
बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत सबै बैठे पुनि खाटा ॥
चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा ॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥
एक जो बाजा भएउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥
जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥

आजु सूर दिन अथवा, आजु रेनि ससि बूड ।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड ॥2॥

सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा ॥
एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ॥
जियत, कंत ! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोडँहिं,साईं !
औ जो गाँठि, कंत ! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह ! दुहुँ जग साथी ॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौंढी दुवौ कंत गर लाई ॥
लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी ॥

रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भएउ रतनार ।
जो रे उवा , सो अथवा; रहा न कोइ संसार ॥3॥

वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गड छेंका आई ॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता ॥
आइ साह जो सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा ॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उडाइ, पिरथिमी झूठी ॥
सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधा जहँ जहँ गढ-घाटी ॥
जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै ॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा ॥

जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष भए संग्राम ।
बादसाह गढ चूरा, चितउर भा इसलाम ॥4॥

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